उत्तराखंड : घरों की देहरी पर फूल डालते हुए बच्चों ने मनाया फूलदेई त्यौहार
-फूल संक्रांति, फ्योंली के पीले फूल और पहाड़ के लोक में फूलों का बाल लोकपर्व
गोपेश्वर (चमोली)। उत्तराखण्ड में गुरूवार को बाल लोकपर्व फूलदेई (फुलफुलमाई) धूमधाम से मनाया गया। उत्तराखंड में चैत्र संक्राति के दिन फूलदेई त्यौहार मनाने की परंपरा है। फूल सगरांद अर्थात फूल संक्रांति के दिन भोर होते ही पहाड़ के हर गांव में छोटे-छोटे बच्चे हाथों में रिंगाल की टोकरी ( जिसमें पीले फ्योंली के फूल, लाल बुरांस के फूल मौजूद होते हैं ) में रखे फूलों को हर घर की देहरी पर डालते हुए गीत गाते है।
चमोली मुख्यालय पर संकल्प अभियान के अंतर्गत फूलदेई पर्व मनाया जिसमे संकल्प अभियान के संयोजक मनोज तिवारी ने कहा के साथ गोपीनाथ मंदिर में पहुंचकर सर्व प्रथम पूजा अर्चना की और उसके बाद आसपास के घरो की देहरी पर फूल बिखरे गये। इन बच्चों को गृह स्वामी की ओर से उपहार भी दिए गये। तिवारी ने कहा कि बच्चां को प्रकृति वह संस्कृति से जोड़ने का प्रयास है इस अवसर पर पावनी रौतेला, अर्नव तिवारी, अभिनव सेमवाल, श्रेया रौतला, मोहित, अनमोल आदि मौजूद थे। वहीं दूसरी ओर जिले के नंदानगर घाट के कुंतरी गांव में भी बच्चों ने घरों की देहरी पर फूल डालते हुए फूलदेई त्यौहार को मनाया। इस अवसर पर एंजल अदिति, अराध्या, आंचल, कान्हा आदि शिमल थे।
कब मनाया जाता है फूलदेई त्यौहार
बसंत का आगमन पहाड़ों में खुशियों की सौगात लेकर आता है। सर्दियों के मौसम की विदाई के उपरांत पहाड़ की ऊंची-ऊंची चोटियों पर पड़ी बर्फ धीरे-धीरे पिघलने लग जाती है। चारों ओर पहाड़ के जंगल लाल बुरांस के फूलों, खेतों की मुंडेर पीले फ्योंली के फूलों, गांवों में आडू, सेब, खुमानी, पोलम, मेलू के पेड़ों के रंग बिरंगे सफेद फूलों से बसंत के इस मौसम को बासंती बना देते है। इसी समय चैत्र महीने की संक्रांति को पूरे पहाड़ की खुशहाली के लिए फूलदेई का त्यौहार मनाया जाता है। फूलदेई त्यौहार पहाड़ के लोक में इस कदर रचा बसा है कि इसके बिना पहाड़ की परिकल्पना संभव नहीं है।
कब तक मनाया जाता है फूलदेई त्यौहार
फूलदेई बच्चों को प्रकृति प्रेम और सामाजिक चिंतन की शिक्षा बचपन में ही देने का आध्यात्मिक पर्व है। फूलों का यह पर्व कहीं-कहीं पूरे चैत्र मास चलता है, तो कहीं आठ दिनों तक। बच्चे फ्योंली, बुरांस और दूसरे स्थानीय रंग बिरंगे फूलों को चुनकर लाते हैं और उनसे सजी फूलकंडी लेकर घोघा माता की डोली के साथ घर-घर जाकर फूल डालते हैं। भेंटस्वरूप लोग इन बच्चों की थाली में पैसे, चावल, गुड़ इत्यादि चढ़ाते हैं। घोघा माता को फूलों की देवी माना जाता है। फूलों के इस देव को बच्चे ही पूजते हैं। अंतिम दिन बच्चे घोघा माता की बड़ी पूजा करते हैं और इस अवधि के दौरान इकठ्ठे हुए चावल, दाल और भेंट राशि से सामूहिक भोज पकाया जाता है।
प्रेम और त्याग की प्रतीक फ्योंली का फूल
पीले फ्योंली के फूलों के बिना फूलदेई त्यौहार की परिकल्पना नहीं की जा सकती। बंसत आगमन के साथ पहाड़ के कोनो-कोनो में फ्योंली का पीला फूल खिलने लगता है। फ्योंली पहाड़ में प्रेम और त्याग की सबसे सुन्दर प्रतीक मानी जाती है। पौराणिक लोक कथाओं के अनुसार फ्योंली एक गरीब परिवार की बहुत सुंदर कन्या थी। एक बार गढ़ नरेश राजकुमार को जंगल में शिकार खेलते-खेलते देर हो गई। रात को राजकुमार ने एक गांव में शरण ली। उस गांव में राजकुमार ने बहुत ही खूबसूरत अफसरा रुपी फ्योंली को देखा तो वह उसके रूप में मंत्रमुग्ध हो गया। राजकुमार ने फ्योंली के माता-पिता से फ्योंली के संग शादी करने का प्रस्ताव रख दिया। फ्योंली के माता पिता खुशी-खुशी राजा के इस प्रस्ताव को मान गए। शादी के बाद फ्योंली राजमहल में आ तो गई, लेकिन राजसी वैभव उसे एक कारागृह लगने लगा था। चौबीसों घंटे उसका मन अपने गांव में लगा रहता था। राजमहल की चकाचौंध से फ्योंली को असहजता महसूस होने लगी। फ्योंली ने राजकुमार से अपने मायके जाने की जिद पकड ली। गांव में फ्योंली पहुंच तो गई लेकिन इस दौरान फ्योंली किसी गम में धीरे-धीरे कमजोर हो गयी थी और मरणासन्न की ओर जा पहुंची। बाद में राजकुमार ने गांव आकर फ्योंली से उसकी अन्तिम इच्छा पूछी तो उसने कहा कि उसके मरने के बाद उसे गांव की किसी मुंडेर की मिट्टी में समाहित किया जाय। फ्योंली को उसके मायके के पास दफना दिया जाता है, जिस स्थान पर कुछ दिनों बाद पीले रंग का एक सुंदर फूल खिलता है। इस फूल को फ्योंली नाम दे दिया जाता है और उसकी याद में पहाड़ में फूलों का त्यौहार मनाया जाता है।